[REGULATION OF GENE EXPRESSION IN PROKARYOTES AND EUKARYOTES]

 प्रोकैरियोट्स तथा यूकैरियोट्स में जीन अभिव्यक्ति का नियमन


[REGULATION OF GENE EXPRESSION IN PROKARYOTES AND EUKARYOTES]


जीवधारी की प्रत्येक कोशिका (cell) में हजारों जीन्स (genes) पाए जाते हैं किन्तु प्रत्येक जीन (gene) सदैव सक्रिय नहीं होता है अर्थात् किसी विशिष्ट समय पर कुछ जीन्स (genes) सक्रिय होते हैं जो प्रोटीन्स (proteins) का संश्लेषण करते हैं किन्तु अन्य जीन्स (genes) में यह सक्रियता नहीं पाई जाती है अर्थात कोई भी जीन (gene) किसी विशिष्ट समय में अथवा किसी विशेष प्रकार के वातावरण में सक्रिय हो सकता है, जो दूसरे समय वातावरण में परिवर्तनों के कारण निष्क्रिय (inactive) हो सकता है। सभी जीवधारियों में वृद्धि (growth) एवं भिन्नन (differentiation) सम्भव होता है, क्योंकि उनकी कोशिकाओं में ट्रान्सक्रिप्शन (Transcription) तथा ट्रान्सलेशन (Translation) में नियमन (regulation) पाया जाता है। जीन्स (genes) की संरचना एवं कार्यों में पाई जाने वाली विशेषताओं के कारण ये ट्रान्सक्रिप्शन (Transcription) तथा ट्रान्सलेशन (Translation) में विभिन्न स्तरों तक नियमन (regulation) करते हैं। इस प्रकार के अध्ययन जीवाणुओं (Bacteria) एवं विषाणुओं (viruses) में किए गए हैं। प्रायः देखा जाता है कि विभिन्न वातावरण में जीवधारियों द्वारा प्रोटीन्स (proteins) की मात्रा एवं प्रकार का संश्लेषण (synthesis) विभिन्न वृद्धि एवं भिन्नन की अवस्थाओं में होता है। इन क्रियाओं से कोशिकाओं (cells) को लाभ होता है। जैसे जीवाणु (Bacteria) विभिन्न प्रकार के वातावरण में वृद्धि करके विभिन्न स्रोतों (sources) से प्राप्त कार्बन (C) को प्रयोग करते हैं। इसका कारण यह है कि जीवाणुओं (Bacteria) द्वारा विभिन्न प्रकार के एन्जाइम्स (enzymes) का संश्लेषण होता है और ये एन्जाइम्स (enzymes) विभिन्न प्रकार के पदार्थ की उपापचयी क्रियाओं (metabolic activities) में भाग लेते हैं। कभी भी जीवाणु (Bacteria) सभी प्रकार के एन्जाइम्स (enzymes) का संश्लेषण (synthesis) एक बार में नहीं करते हैं, अर्थात् आवश्यकतानुसार वे एन्जाइम्स (enzymes) के समूहों (groups) का संश्लेषण करते हैं। विभिन्न प्रकार के आनुवंशिकी (Genetics) एवं कार्यिकी (Physiology) नियमित तन्त्रों (regulated systems) को निम्न उदाहरणों द्वारा समझाया जा सकता है।


प्रोकैरियोट्स में जीन अभिव्यक्ति का नियमन [GENE EXPRESSION REGULATION IN PROKARYOTES]


प्रोकैरियोट्स (Prokaryotes) में अलग-अलग समय में अलग-अलग विकरों (enzymes) की आवश्यकता होती है। प्रोकैरियोट्स केवल उन्हीं विकरों को संश्लेषित करते हैं जिनको उन्हें किसी समय विशेष में जरूरत होती है। अतः कोई भी कोशिका उन सभी विकरों का संश्लेषण नहीं करती है जिनके जीन (gene) उनमें उपस्थित होते हैं। किस कोशिका में किस समय कौन-कौन से जीन्स अपनी अभिव्यक्ति प्रकट करेंगे, यह पूर्णरूप से नियंत्रित होता है। अतः यह कहा जा सकता है कि किसी जीन द्वारा सम्बन्धित विकर अथवा प्रोटीन का उत्पादन किया जाना अथवा न किया जाना जीन क्रिया का नियमन (Regulation of gene action) कहलाता है।


शारीरिक क्रिया की आवश्यकता के अनुसार कभी कुछ जीन सक्रिय होती हैं अर्थात् इनमें प्रोटीन निर्माण होता रहता है, परन्तु कुछ समय में यह कार्य नहीं होता। उच्च कोटि के सभी कोशों में जीनोम एकसमान होते हैं। यदि सभी जीन सदैव सक्रिय हों तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जिसमें कोशिकाएँ लार, अग्न्याशय रस तथा मूत्र एक ही समय बनायेंगी। कई आवश्यक क्रियाएँ अनावश्यक समय पर होंगी और कोशिका विभाजन का प्रक्रम चलता रहेगा, परन्तु ऐसा होता नहीं है अतः इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कोशिकाओं में जीनों की क्रिया को स्वनियमित करने की कोई न कोई विधि अवश्य रहती है। इस नियन्त्रण के लिए दो प्रकार की विधियाँ हैं। एक प्रकार की विधि कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) में होती है और दूसरी विधि केन्द्रक द्वारा संचालित होती है जिसमें किसी एक संरचनात्मक जीन के कार्य (अनुलेखन) को अन्य अंश द्वारा किया जाता है।

 कोशिकाद्रव्य में एन्जाइम संश्लेषण तथा सक्रियता का नियन्त्रण (Control of Enzyme Synthesis and Activity in Cytoplasm) 

इस क्रिया में डी एन ए (DNA) से एम-आर एन ए (m-RNA) का निर्माण हो जाता है, किन्तु एम-आर एन ए (m-RNA) द्वारा एन्जाइम (enzyme), प्रोटीन के संश्लेषण का नियमन (regulation) कोशिकाद्रव्यीय (cytoplasmic) विशिष्ट प्रकार के पदार्थों द्वारा होता है। ई. कोलाई (E. coli) के माध्यम (medium) में ट्रिप्टोफेन (triptophan) के डाल देने से ट्रिप्टोफेन सिन्थेटेज (triptophan synthetase) एन्जाइम (enzyme) का संश्लेषण कम होने लगता है। इसी प्रकार से इस जीवाणु के माध्यम (medium) में मिथायोनीन (methionine) के डाल देने से मिथायोनीन सिन्थेटेज (methionine synthetase) एन्जाइम (enzyme) का संश्लेषण कम होने लगता है और यह क्रिया एन्जाइम रिप्रेशन (enzyme repression) कहलाती है। प्रायः देखा जाता है कि अन्तिम उत्पाद (end product) की अधिक मात्रा में उपस्थिति होने के कारण भी एन्जाइम संश्लेषण (enzyme synthesis) की क्रिया कम होती है अर्थात् उत्परिवर्तन (mutation) द्वारा आवेशित एन्जाइम (charged enzyme) प्राप्त किया जा सकता है जिसका प्रभाव अन्तिम उत्पाद (end product) से प्रभावित नहीं होता है, और यह क्रिया डिप्रेशन (Depression कहलाती है। सूक्ष्मजीवियों (micro-organisms) में विभिन्न प्रकार के विशिष्ट पदार्थों ( specific substances) को प्रदान करने पर उनमें कोशिकीय (cellular) एन्जाइम संश्लेषण (enzyme synthesis) क्षमता बढ़ जाती है, जिसे एन्जाइम प्रेरण (enzyme induction) कहते हैं और यह पदार्थ जो प्रेरण उत्पन्न करता है प्रेरक (inducer) कहलाता है। अन्य प्रकार के नियमन (regulation) में किसी एन्जाइम (enzyme) की सक्रियता (activity) को विभिन्न प्रकार से रोका जा सकता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के पदार्थ कुछ एन्जाइम्स (enzymes) की क्रियाओं को उत्प्रेरित (catalyse) भी करते हैं। 


नियामक जीन्स (Regulator Genes) जीन्स (genes) डी एन ए अणु (DNA molecule) के अनुभाग होते हैं जो विशिष्ट प्रकार के प्रोटीन्स (proteins) के संश्लेषण (synthesis) की ओर संकेत करते हैं। यह क्रिया ट्रान्सक्रिप्शन (transcription ) द्वारा होती है, जिसमें विशिष्ट प्रकार का एम आर एन ए (Pr-RNA) का निर्माण प्रत्येक जीन (genc) से होता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जैकब (Jacob) एवं मोनोड (Monod, 1966) ने जीवाणु आनुवंशिकी (genetics) पर महत्त्वपूर्ण कार्य करके नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया। उन्होंने बताया कि सभी जीन्स (genes) एन्जाइम प्रोटीन्स (enzyme proteins) के संश्लेषण (synthesis) की ओर संकेत (code) नहीं करते हैं, अर्थात् कुछ जीन्स (genes) दूसरे प्रकार के कार्य भी करते हैं। उन्होंने बताया कि यद्यपि बहुत से जीन्स (genes) कोशिकीय एन्जाइम्स (cellular enzymes) के संश्लेषण (synthesis) का कार्य करते हैं, किन्तु दूसरे प्रकार के जीन्स (genes) किसी भी प्रकार की प्रोटीन्स (proteins) का संश्लेषण नहीं करते हैं अर्थात् उनका कार्य विशिष्ट प्रकार की संरचना वाले जीन्स (genes) की क्रियाओं का नियमन (regulate) करना तथा नियन्त्रित (control) करना होता है अतः ये जीन्स (genes) नियामक जीन्स (regulator genes) कहलाते हैं। इनका विशिष्ट कार्य यह है कि कोई संरचनात्मक जीन (structural gene) किसी समय अपने एम-आर. एन. ए. (m-RNA) का निर्माण तथा विशिष्ट एन्जाइम प्रोटीन का संश्लेषण करते हैं अथवा नहीं। नियामक जीन्स, संरचनात्मक जीन्स के ट्रान्सक्रिप्शन (transcription) को एम-आर. एन. ए. ( RNA) में बदलने की क्रिया में रुकावट डाल देता है, क्योंकि इनके द्वारा रासायनिक पदार्थ का संश्लेषण होता है जो रिप्रेशर (repressor) कहलाता है। ऐसे संरचनात्मक जीन्स (structural genes) जो नियामक जीन्स (regulator genes) द्वारा नियन्त्रित (controlled) होते हैं, रिप्रेशर (repressor) की उपस्थिति में एम-आर. एन. ए. (m-RNA) का संश्लेषण नहीं कर पाते हैं और उनके विशिष्ट एन्जाइम्स (specific enzymes) उत्पन्न नहीं हो पाते हैं। अतः नियामक जीन्स (regulator genes) द्वारा उत्पन्न रुकावट करने वाला पदार्थ अपना नियमन कार्य (regulation function) जीनोम (genome) के विशेष भाग द्वारा करता है जिसे ऑपरेटर जीन (operator gene) कहते हैं। यह ऑपरेटर जीन (operator gene) संरचनात्मक जीन्स (structural genes) की क्रिया को नियमित करता है। डी. एन. ए. (DNA) से निर्मित क्रोमोसोम्स (chromosomes) पर नियामक जीन्स (regulator genes) तथा ऑपरेटर जीन्स (operator genes) उपस्थित होते हैं।


नियामक जीन (regulator gene) सम्बन्धित संरचनात्मक जीन्स (structural genes) के सम्पूर्ण समूह के लिए एक स्विच का कार्य करता है। नियामक जीन निरोधक पदार्थ उत्पन्न करता है जो एक प्रोटीन अणु होता है। यह ओपेरॉन जीन से संयोग करता है तथा इस जीन को निष्क्रिय कर देता है। इस अवस्था में 

संरचनात्मक जीन्स की क्रिया भी रुक जाती है, जिसके कारण ओपेरॉन के सभी संरचनात्मक जीन्स का m-RNA निर्माण कार्य एवं एन्जाइमी प्रोटीन्स का संश्लेषण कार्य पूरी तरह से रुक जाता है। विशिष्ट परिस्थितियों में कोशिका का कोई रासायनिक संघटक (component) निरोधक पदार्थों


(repressor substances) को निष्प्रभावी (inactive) अथवा निष्क्रिय (inactive) कर देता है। अतः यह पदार्थ प्रेरक (inducer) अथवा कार्यकर (effector) कहलाता है। यह निरोधक अणु से संयोग करके नियामक जीन के निरोधक प्रभाव को भी समाप्त कर देता है। प्रेरक की उपस्थिति में ऑपरेटर जीन, निरोधक से मुक्त हो जाता है और संरचनात्मक जीन्स नियंत्रित होकर क्रिया करने लगते हैं जिसके फलस्वरूप m-RNA बनने लगते हैं और फिर से एन्जाइमी प्रोटीन्स का संश्लेषण होने लगता है।


निरोधक अणु प्राय: प्रोटीन (protein) होते हैं, कोशिका में इनकी अत्यधिक मात्रा उपस्थित होने पर इनका प्रभाव विषैला (toxic) हो जाता है। ऐसी स्थिति में नियामक जीन इन जीनों के प्रकार्यों का निरोध (inhibit) करने लगते हैं जो विषैली प्रोटीन्स के संश्लेषण को उत्प्रेरित करने वाले विकरों (enzymes) के निर्माण का आनुवंशिक नियंत्रण करते हैं।


संरचनात्मक जीन के विकर से उत्पन्न पदार्थ (substrate) एक प्रेरक (inducer) का कार्य करता है यदि यह पदार्थ नहीं बनता है तो एन्जाइम के बनने का कोई महत्व नहीं होता है जब विकर की आवश्यकता नहीं होती है तो उसका निर्माण निरोधक द्वारा रुक जाता है। जब विकर का क्रिया पदार्थ उपस्थित होता है तो प्रेरक कार्य होता रहता है और संरचनात्मक जीन्स सक्रिय हो जाते हैं जिसके फलस्वरूप उस विकर का उत्पादन होने लगता है जो क्रिया पदार्थ पर क्रिया करता है। अर्थात् कोशिकाओं की आवश्यकतानुसार ही संरचनात्मक जीन क्रियाशील अथवा निरोधी हो जाता है।


नियामक जीन्स (regulator genes), संरचनात्मक जीन्स (structural genes) से भिन्न होते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि किसी एक गुणसूत्र पर नियामक जीन स्थित हो तथा किसी दूसरे गुणसूत्र पर इसका ओपेरॉन स्थित हो । उत्पादित विकरों की प्रकृति में नियामक जीन्स किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकते हैं अपितु वे केवल यह निर्धारित करेंगे कि संरचनात्मक जीन किन परिस्थितियों में अपने विकरों का निर्माण कर सकते हैं।


जब किसी कोशिका में विकरों की आवश्यकता होती है तो नियामक जीन्स यह निश्चित करते हैं कि इन विकरों का उत्पादन करने वाले संरचनात्मक जीन्स क्रिया करने लगें किन्तु जब इन विकरों की आवश्यकता नहीं होती है और अन्तिम उत्पादों के एकत्रित होने पर कोशिका पर विषैला प्रभाव पड़ने लगता है तो यह उन जीन्स का कार्य रोक देते हैं। अतः स्पष्ट हो जाता है कि एक जीन किसी कोशिका को सक्रिय करता है तो वही जीन दूसरी कोशिका को निष्क्रिय भी कर सकता है।


जीन क्रिया नियमन के स्तर (Levels of regulation of gene action)- किसी जीन द्वारा नियंत्रित लक्षण का प्रकट होना उस जीन द्वारा उत्पन्न विकर की मात्रा तथा उसकी सक्रियता पर निर्भर करता है। किसी विकर की मात्रा एवं उसकी सक्रियता (activity) चार स्तरों पर नियंत्रित हो सकती है :

1. जीन प्रतिकृति के स्तर पर नियमन (Regulation at level of gene replication) किसी विकर अथवा प्रोटीन की मात्रा (amount) उसको उत्पन्न करने वाले m-RNA की मात्रा पर निर्भर होती है। m-RNA की मात्रा, उसे उत्पन्न करने वाले जीन की प्रतिलिपियों (copies) की संख्या के अनुसार होती है। कोशिकाओं में जिन जीन्स (genes) के उत्पादों की बहुत अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है, जीनोम में उनकी एक से अधिक प्रतियाँ उपस्थित होती हैं। उदाहरण/RNA उम्पन्न करने वाले जीन्स। इसके अलावा, कुछ जीन्स की अतिरिक्त प्रतियों का प्रतिकृति (replication) द्वारा उत्पादन होता है। यह प्रतियाँ ट्रान्सक्रिप्शन (transcription) में कार्य करती हैं और अन्त में इनका पाचन (digestion) हो जाता है। उदाहरण के लिए केन्द्रिका (nucleolus) में RNA की 1000 तक प्रतियाँ उपस्थित होती हैं।

2. ट्रान्सलेशन के स्तर पर नियमन (Regulation at the level of translation)-कोशिका में सभी m-RNA अणुओं का ट्रान्सलेशन होना आवश्यक नहीं होता है। कभी-कभी m-RNA का ट्रान्सलेशन कोशिकाओं में नहीं होता है, परन्तु अन्य कोशिकाओं में यह क्रिया होती है जो ट्रान्सलेशन नियमन (translation regulation) कहलाती है। इसमें राइबोसोम, (-RNA अणु RNA's विकर, बहुसमपारी (polycistronic) m-RNA से सम्बन्धित सिस्ट्रॉन की स्थिति,m-RNA की द्वितीयक संरचना भाग लेते हैं। 

3.पोस्ट ट्रान्सलेशन नियमन (Post translation regulation) - कुछ प्रोटीन अणु ट्रान्सलेशन के 3. पश्चात् ही रूपान्तरित हो जाते हैं और सक्रिय हो जाते हैं। इससे पूर्व वह निष्क्रिय अवस्था में पड़े रहते हैं तथा निर्भरण निरोध (feedback inhibition) प्रदर्शित करते हैं और अन्तिम उत्पाद की सान्द्रता कम होने पर यह समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार का निरोध करने वाले नियामक विकर (regulatory enzymes) कहलाते हैं। यह विकर जैव संश्लेषण पथ की प्रथम अभिक्रिया को उत्प्रेरित करते हैं।


. 4. ट्रान्सक्रिप्शन का नियमन (Regulation of transcription)-प्रोकैरियोट्स (Prokayotes) में ट्रान्सक्रिप्शन का नियमन जीन क्रिया नियमन द्वारा होता है। अर्थात् जीन क्रिया नियमन ट्रान्सक्रिप्शन नियमन कहलाता है। सन् 1890 में वैज्ञानिकों को इसके प्रमाण प्राप्त हुए थे। यीस्ट (Yeast) को लैक्टोज पर संबंधित करने पर लेक्टोज का तुरन्त किण्वन होने लगता है जबकि अन्य यीस्ट्स द्वारा 14-16 घंटे बाद ही लेक्टोज का किण्वन हो पाता है।


ई. कोलाई (E. coli) में लेक्टोज उपापचय सम्बन्धित विकरों के लिए पोषक मीडियम में लेक्टोज का होना आवश्यक होता है। सन् 1959 में पार्डी (Pardee) ने यह सिद्ध कर दिया कि ई. कोलाई (E. coli) का जीन एक दमनकर (repressor) बनाता है जो लेक्टोज उपापचय के विकरों का संश्लेषण नहीं होने देता है।


प्रोकैरियोट्स में प्रोटीन संश्लेषण का नियमन [REGULATION OF PROTEIN SYNTHESIS IN PROKARYOTES]


प्रेरण एवं दमन द्वारा जीन क्रिया का नियन्त्रण (Control of Gene Action by Induction and Repression)


(1) प्रेरण (Induction)- इस प्रक्रम में जीन्स का प्रेरण होता है जिसके द्वारा एन्जाइम्स उत्पन्न करने के लिए प्रेरित किया जाता है। ऐसे पदार्थ जो एन्जाइम उत्पादन को प्रेरित करते हैं, प्रेरक (Inducer) कहलाते हैं। इस क्रिया को देखने के लिए ई. कोलाई (E. coli) जीवाणु को विभिन्न पोषक माध्यमों (Nutrient media) में रखते हैं। ई. कोलाई ग्लिसरॉल माध्यम में 8 गेलेक्टोसाइडेज (B galactosidase) नामक एन्जाइम उत्पन्न करता है जो लेक्टोज (lactose) को ग्लूकोज तथा गेलेक्टोज में अपघटित कर देता है। जब इस जीवाणु को |लेक्टोज युक्त माध्यम में रखा जाता है तो 8 गेलेक्टोसाइडेज एन्जाइम का संश्लेषण बहुत बढ़ जाता है। इसके विपरीत जब माध्यम में लेक्टोज अनुपस्थित होता है तो जीवाणु कोशिकाओं द्वारा 3 गेलेक्टोसाइडेज एन्जाइम का संश्लेषण नहीं होता है अतः ई. कोलाई में एन्जाइम संश्लेषण के लिए लेक्टोज (lactose) प्रेरण का कार्य करता है। अतः यह प्रेरणीय एन्जाइम (inducible enzyme) कहलाता है।


(2) दमन (Repression) – इसमें जीन की सक्रियता निरुद्ध (check) हो जाती है जिसके फलस्वरूप किसी प्रोटीन का संश्लेषण पूर्ण अथवा आंशिक रूप से रुक जाता है अतः यह पदार्थ दमनकारी (repressor) कहलाता है। ई. कोलाई (E. coli) जीवाणु कुछ विशिष्ट एन्जाइम्स का संश्लेषण करती हैं जो अमीनो अम्लों के संश्लेषण के लिए आवश्यक होते हैं। किन्तु माध्यम में हिस्टिडीन नामक अमीनो अम्ल मिला देने पर इस जीवाणु के द्वारा हिस्टिडीन संश्लेषण करने वाले एन्जाइम्स का उत्पादन कम हो जाता है जो दमनशील एन्जाइम्स कहलाते हैं जिसमें हिस्टिडीन अमीनो अम्ल दमनकारी (repressor) होता है यह अम्ल किसी प्रोटीन जैव मंश्लेषण क्रिया का अन्तिम उत्पाद होता है।


(3) सह-दमनकारी (Co-repressor)- कुछ दमनशील तंत्रों में नियामक जीन (regulator gene) संश्लेषित प्रोटीन अक्रियाशील (inactive) दमनकारी (repressor) का कार्य करता है जो एपो-रिप्रेसर (Apo-repressor) कहलाता है किन्तु यह एपो-रिप्रेसर, को रिप्रेस साथ मिलकर क्रिया करने लगता है। दमनकारी (Co-repressor) की अनुपस्थिति में अक्रियाशील दमनकारी ओपेरॉन जीन (Operon gene) होता है, क्योंकि ऑपरेटर जीन (Operator gene) निरुद्ध नहीं होता है और अनुलेखन ranslation) होता है जिसके फलस्वरूप प्रोटीन संश्लेषण की क्रिया पूरी हो जाती है।


 (Co-repressor) के उपस्थित होने पर यह एपो-दमनकारी (Apo-repressor) के चत गम्मिश्रण बनाता है जिससे एपणे-दमनकारी क्रिया करने लगता है। यह सम्मिश्रित ऑपरेटर जीन से बंधित होकर उसे निरुद्ध (check) कर देता है और इस प्रकार प्रोटीन संश्लेषण होता है। संरचनात्मक जीन (structural gene) द्वारा उत्पन्न किसी एन्जाइम का उत्पाद सह-दमनकारी हो सकता है। 

ओपेरॉन मॉडल (Operon Model)


जैकब एवं मोनोड (Jacob and Monod, 1961) ने जीन नियमन की धारणा से सम्बन्धित ई. कोलाई (E. coli) के लैक ओपेरॉन (Lac Operon) का अध्ययन किया, जिसके अनुसार इस जीवाणु के वन्य स्ट्रेन (wild strain) लैक्टोज (Lactose) का उपयोग कार्बन (C) के स्रोत (source) के रूप में करते हैं। कुछ उत्प्रेरित (catalysed) स्ट्रेन्स (strains) केवल ग्लूकोज (glucose) पर ही वृद्धि करते हैं अर्थात् लैक्टोज (lactose) पर नहीं उगते हैं। आनुवंशिकीय (Genctical) एवं जैव रसायन (Biochemical) विश्लेषणों द्वारा यह ज्ञात हो चुका है कि लैक जीन (lac gene) में तीन प्रकार के सिस्ट्रॉन्स (cistrons) होते हैं।


(a) यह सिस्ट्रॉन (cistron) बीटा गैलेक्टोसाइडेज (B-galactosidase) एन्जाइम (enzyme) की ओर संकेत करता है जो लेक्टोज (lactose) के हाइड्रोलाइसिस (hydrolysis) को उत्प्रेरित (catalyse) करके ग्लूकोज (glucose) तथा गैलेक्टोज (galactose) में बदल देता है।


(b) यह सिस्ट्रॉन (cistron) बीटा गेलेक्टोसाइड परमियेज (B-galactoside permease) एन्जाइम (enzyme) की ओर संकेत करता है जिसके द्वारा मीडियम (medium) से लैक्टोज अणुओं (lactose molecules) का स्थानान्तरण कोशिकाओं की ओर होता है।


(c) यह सिस्ट्रॉन (cistron) गैलेक्टोसाइड ऐसीटाइलेज (galactoside acetylase) की ओर संकेत करता है जिसका कार्य भली-भाँति ज्ञात नहीं है।


उपर्युक्त तीनों प्रकार के एन्जाइम्स (enzymes) लैक्टोज (lactose) के उपयोग करने के लिए आवश्यक होते हैं अर्थात् इन तीनों एन्जाइम्स (enzymes) में से किसी एक एन्जाइम (enzyme) में उत्परिवर्तन (mutation) हो जाता है, तो लैक स्ट्रेन (lac strain) बनता है जो केवल ग्लूकोज (glucose) पर वृद्धि करता है अर्थात् इसकी वृद्धि लैक्टोज (lactose) पर नहीं होती है। जीवाणु (Bacteria) के वन्य प्रकार (wild type) के स्ट्रेन (strain) द्वारा एन्जाइम्स (enzymes) का संश्लेषण (synthesis) केवल लैक्टोज (lactose) के इस्तेमाल होने के लिए होता है, जब वे किसी सब्सट्रेट (substrate) की उपस्थिति में लगाए जाते हैं। जीवाणुओं की कोशिकाओं (cells) को ग्लूकोज (glucose) पर उगाने पर इनकी कोशिकाएँ एन्जाइम्स (enzymes) का संश्लेषण नहीं करती हैं। अतः सिद्ध हो जाता है कि इन एन्जाइम्स (enzymes) के संश्लेषण का प्रेरण (induction) सब्सट्रेट (substrate) द्वारा ही होता है। लेक्टोज (lactose) के अतिरिक्त अन्य


गैलेक्टोसाइड्स (galactosides) प्रेरकों (inducers) का कार्य करते हैं।


• उपर्युक्त तीन एन्जाइम्स को जीन गुणसूत्र में सिस्ट्रॉन-z, सिस्ट्रॉन-y तथा सिस्ट्रॉन-a द्वारा प्रदर्शित करते हैं। इन सिस्ट्रॉन्स को संरचनात्मक जीन्स कहते हैं। ये जीन्स एक-दूसरे के समीपस्थ होते हैं और आपस में इनमें 

समन्वय होता है। DNA के खण्ड जो सिस्ट्रॉन की सक्रियता को नियन्त्रित रखते हैं तथा सम्बन्धित होते हैं, नियन्त्रण जीन्स कहलाते हैं।


नियन्त्रण जीन्स तीन प्रकार के होते हैं :


(i) नियामक जीन i (Regulator gene i),


(ii) प्रोमोटर जीन p (Promotor gene p), (iii) ऑपरेटर जीन (Operator gene o) |


अतः ओपेरॉन (Operon) का निर्माण नियामक जीन्स, प्रोमोटर जीन्स, ऑपरेटर जीन्स तथा संरचनात्मक


जीन्स द्वारा होता है।


लैक ओपेरॉन की संरचना [STRUCTURE OF LAC OPERON]


वे जीन्स, जो ओपेरॉन के संश्लेषण में भाग लेते हैं, निम्न प्रकार के होते हैं:


(1) संरचनात्मक जीन्स (Structural genes) - यह DNA के उन खण्डों को प्रदर्शित करते हैं जिन पर प्रोटीन संश्लेषण का संदेश कोडेड (coded) होता है। संरचनात्मक जीन्स, पॉलीपेप्टाइड शृंखला की


प्राथमिक संरचना (primary structure) के संश्लेषण के समय अमीनो अम्लों के विन्यास को नियंत्रित करके निर्धारित होते हैं। (2) नियन्त्रक जीन्स (Control genes) - यह जीन्स प्रेरणा (induction) तथा दमन (repression)


क्रियाओं द्वारा संरचनात्मक जीन्स को नियन्त्रित करते हैं। यह जीन्स निम्न तीन प्रकार के होते हैं:


(i) नियामक जीन (Regulator gene) - यह जीन एक विशिष्ट प्रकार के एन्जाइम का स्रावण करते हैं जो दमनकारी (repressor) का कार्य करता है। इसके द्वारा संरचनात्मक जीन्स का अनुलेखन प्रभावित होता है। इनके द्वारा अमीनो अम्लों का वह अनुक्रम कोडित होता है जो दमनकारी प्रोटीन्स (repressor proteins) का निर्माण करते हैं। यह प्रोटीन्स ऑपरेटर जीन (operator gene) से बंधित हो जाते हैं और उनको क्रियाविधि निरुद्ध (check) हो जाती है। किसी प्रेरक (inducer) द्वारा यह क्रियाशील दमनकारी निष्क्रिय (inactive) हो जाते हैं और सह-दमनकारी के प्राप्त होने पर यह क्रियाशील हो जाते हैं (चित्र 4-62)।


(ii) प्रोमोटर जीन-p (Promotor gene-p)- यह DNA का वह भाग है जहाँ पर RNA पॉलीमरेज पाया जाता है तथा संरचनात्मक जीन का ट्रान्सक्रिप्शन प्रारम्भ होता है। DNA के एक छोटे भाग में लगभग 100 न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं। यह जीन, नियामक तथा ऑपरेटर जीन के मध्य स्थित होता है।


(iii) ऑपरेटर जीन-o (Operator gene o)- यह DNA का वह भाग होता है जिसके द्वारा ट्रान्सक्रिप्शन नियन्त्रित होता है। यह संरचनात्मक जीन के समीप स्थित होता है तथा रिप्रेसर-ऑपरेटर (repressor-operator) जीन से बंधित रहता है जिससे नियामक जीन का निर्माण होता है। ओपेरॉन के कार्य (Functions of Operon)


जै. बैकविथ (J. Beckwith, 1967)- इप्सटिन एवं बैंकविथ (1968) तथा मार्टिन (1969) ने ई. कोलाई (E. coli) में लैक ओपेरॉन (Lac operon) पर महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। उन्होंने बताया कि लैक्टोज प्रेरक (lactose inducer) की अनुपस्थिति में नियामक जीन (regulator gene) एक दमनकारी प्रोटीन (repressor protein) का संश्लेषण करता है। यह दमनकारी प्रोटीन ऑपरेट दिशा (site) से बंधित होकर उसके ट्रान्सक्रिप्शन को रोक देती है जिसके फलस्वरूप संरचनात्मक जीन्स (m-RNA) का संश्लेषण करने में असमर्थ हो जाते हैं अतः प्रोटीन का उत्पादन बन्द हो जाता है। जब माध्यम (medium) में लैक्टोज प्रेरक (lactose inducer) उपस्थित होता है तो यह प्रेरक कोश में आ जाता है और रूपान्तरित होकर नियामक जीन से बंधित हो जाता है।


अनेक बार दमनकारी ऑपरेटर से बंधित न होकर स्वतन्त्र रहता है। यह DNA पॉलीमरेज को सक्रिय करके प्रोमोट जीन के समारम्भन (initiation) दिशा से बंधित हो जाता है। पॉलीसिस्ट्रोनिक लैक m-RNA का ट्रान्सक्रिप्शन होता है तथा यह तीनों एन्जाइम्स को कोड (code) करता है जो लैक्टोज उपापचय (lactose metabolism) के लिए आवश्यक होता है। ओपेरॉन संकल्पना (Operon Concept)


नियामक जीन (regulator gene), सम्बन्धित संरचनात्मक जीन्स (structural genes ) के समूह (group) की ओर स्थित होता है तथा यह समूह एवं नियामक जीन (regulator gene) संयुक्त होकर एक इकाई (unit) का निर्माण करता है जो जैकब (Jacob) एवं मोनोड (Monod) के अनुसार ओपेरॉन (Operon) कहलाता है (चित्र 4.63)।


सम्पूर्ण संरचनात्मक जीन्स (structural genes) के समूह (group) से सम्बन्धित सभी जीन्स (genes) के लिए ऑपरेटर जीन (Operator gene) एक स्विच (switch) की भाँति कार्य करता है। नियामक जीन (regulator gene) से निर्मित दमनकारी (repressor) एक प्रोटीन अणु (protein molecule) होता है, यह ऑपरेटर जीन (Operator gene) से संयुजित होकर उसे क्रियाहीन (inactive) कर देता है। इस दशा में संरचनात्मक जीन्स (structural genes) का स्विच (switch) बन्द हो जाता है, जिसके फलस्वरूप ओपेरॉन (operon) के सभी संरचनात्मक जीन्स (structural genes) के ट्रान्सक्रिप्शन (transcription) एम-आर.. एन. ए. (m-RNA) तथा उनके सभी संश्लेषण करने वाले एन्जाइम्स (enzymes) की क्रियाएँ रुक जाती हैं। कुछ अवस्थाओं में रिप्रेशन पदार्थ की क्रियाएँ कोशिका के रासायनिक पदार्थों के कारण समाप्त हो जाती हैं।

के दमनकारी (repressor) प्रभाव को रोकता है। इस प्रकार प्रेरक की उपस्थिति में ऑपरेटर (operator) दमनकारी (repressor) स्वतन्त्र हो जाता है और संरचनात्मक जीन्स (structural genes), नियन्त्रित (controlled) होकर विशिष्ट प्रकार के एक एम-आर. एन. ए. (m-RNA) के संश्लेषण में सहायक होते हैं जो एन्जाइम प्रोटीन (enzyme protein) का संश्लेषण करते हैं।


दमनकारी अणु (repressor molecule) एक प्रोटीन (protein) होता है, जो कोशिका (cell) में अधिक मात्रा में उपस्थित होने पर उसके लिए घातक (toxic) होता है। नियामक जीन (regulator gene) द्वारा इस प्रकार के एन्जाइम्स (enzymes) के संश्लेषण पर नियन्त्रण होता है जो घातक प्रोटीन्स (toxic proteins) के संश्लेषण में उत्प्रेरक (catalyst) का कार्य करते हैं प्रेरक (inducer) प्रायः संरचनात्मक जीन (structural gene) के एन्जाइम (enzyme) का प्राकृतिक पदार्थ (natural substrate) होता है। इस पदार्थ की अनुपस्थिति में बने एन्जाइम (enzyme) का कोई महत्त्व नहीं होता है। प्रेरण क्रियाविधि (inducing mechanism) में जब पदार्थ के एन्जाइम (enzyme) उपस्थित होते हैं तो संरचनात्मक जीन्स (structural genes) सक्रिय हो जाते हैं जिससे एन्जाइम्स (enzymes) का संश्लेषण होता है और ये एन्जाइम्स सब्क्ट्रेट (substrate) पर क्रिया करते हैं।

अतः स्पष्ट हो जाता है कि नियामक जीन (regulator gene) संरचनात्मक जीन्स (structural genes) से भिन्न होते हैं। कोई नियामक (regulator) जीन किसी क्रोमोसोम (chromosome) पर स्थित होता है किन्तु यह ऐसे स्थान पर स्थित नहीं होता है जिस पर ओपेरॉन (operon) उत्पन्न होता है। संरचनात्मक जीन्स (structural genes) द्वारा उत्पन्न एन्जाइम्स (enzymes) की प्रकृति को भी यह नियामक जीन्स (regulator genes) नहीं बदलते हैं अर्थात् इनके द्वारा भी ऐसी अवस्थाएँ उत्पन्न हो जाती हैं जिनमें संरचनात्मक जीन्स अपने एन्जाइम्स का उत्पादन कर सकते हैं। नियामक जीन्स संरचनात्मक जोन्स के क्रियाकलापों में सहायक होते


हैं अर्थात् कोशिका (cell) में आवश्यकता के अनुसार एन्जाइम्स (enzymes) का निर्माण होता है और आवश्यकता न होने पर एन्जाइम्स का संश्लेषण नहीं होता है।


यूकैरियोट्स में जीन अभिव्यक्ति का नियमन [REGULATION OF GENE EXPRESSION IN EUKARYOTES]


जीन नियमन की क्रियाविधि प्रोकैरियोट्स की अपेक्षा यूकैरियोट्स में भली-भाँति ज्ञात नहीं है। यूकेरियोट्स में जीन अभिव्यक्ति (gene expression) की परिघटना (phenomenon) का अध्ययन निम्न शीर्षों में किया जा सकता है


(1) स्थिति प्रभाव (Position Effects)


किसी जीन के कार्य में परिवर्तन गुणसूत्र अथवा होमोलोगस गुणसूत्र में जीन की स्थिति (position) में परिवर्तन के कारण होता है जिसे स्थिति प्रभाव (position effect) कहते हैं। स्थिति प्रभाव के कारण जीन की प्राथमिक संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता है। स्थिति प्रभाव ( position effect) Neurospora, Oenothera, Drosophila, यीस्ट, मक्का, चूहों तथा मनुष्य में देखे जाते हैं। विभिन्न प्रकार के स्थिति प्रभावों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:


(i) शवलतायुक्त स्थिति प्रभाव (Variegated position effect),


(ii) सिस-ट्रान्स स्थिति प्रभाव, तथा (iii) पुनरावृत्ति स्थिति प्रभाव।


(i) शवलता स्थिति प्रभाव (Variegated Position Effect) - शवलता स्थिति प्रभाव के फलस्वरूप


विषमवर्णीयभवन (heterochromatization) पाया जाता है जो concerned gene का ट्रान्सक्रिप्शन


(transcription) को रोकता है। ट्रान्सक्रिप्शन में हिटरोक्रोमेटिन केवल कम सक्रिय ही नहीं होता है अपितु


यूक्रोमेटिन (Euchromatin) की अपेक्षा अधिक पुनरावृत्तीय डी. एन. ए. (Repeatitive DNA) अभिक्रम


(sequence) प्रदर्शित करते हैं। विशिष्ट स्थिति पर हिटरोक्रोमेटिन दिखायी देते हैं जो प्रायः विभिन्न गुणसूत्रों


के सेन्ट्रोमियर्स एवं टीलोमियर्स के समीप होते हैं अतः इन्हें कन्स्ट्रक्टिव हिटरोक्रोमेटिन (Constructive


heterochromatin) कहते हैं। जब यूक्रोमेटिन (Euchromatin) खण्ड को हिटरोक्रोमेटिन के समीप रखा


जाता है हिटरोक्रोमेटाइजेशन (Heterochromatization) के फलस्वरूप वह हिटरोक्रोमेटिन में परिवर्तित हो


जाता है जिसे विकल्पीहिटरोक्रोमेटिन (facultative heterochromatin) कहते हैं। (ii) शवलता स्थिति प्रभाव (Variegated Position Effect) विषमवर्णी भवन (hetero chromatization) के कारण उत्पन्न ड्रोसोफिला (Drosophila) की उत्परिवर्तित (mutant) आँखों (mottled eys) में देखा जा सकता है। इसके X गुणसूत्र 3C, बैण्ड (band) वाला जीन W* बायीं सिरे पर स्थित होता है जो फीकी लाल आँखें (dull red eyes) 3C2 भुजा के रंग उत्पन्न करता है। जब पेरासेन्ट्रिक इनवरजन बैण्ड (W+ युग्म विकल्पी) में सेन्ट्रोमियर के समीप हिटरोक्रोमेटिन क्षेत्र में होता है तब आँखों का रंग motted उत्पन्न होता है। आँखों का motlted mutant W+ जीन के क्षार (base) क्रम में परिवर्तन नहीं करता है। अतः स्पष्ट हो जाता है कि आँखों का dull red eye colour उत्पन्न होने के लिए एक और इनवर्जन (inversion) होता है जो 3C2. बैण्ड को अपने मूल (original) स्थिति में पहुँचा देता है। जब W युग्म विकल्पी (allele) को क्रोसिंग ओवर (crossing over) द्वारा चितकबरी (mottled) युग्मविकल्पी (allele) की स्थिति में रखा जाता है तब एक नया W* युग्मविकल्पी चितकबरी (mottled) आँखों को उत्पन्न करता है अर्थात् जैसा कि अनुमान किया जाता है dull red eye नहीं बनती हैं। जब क्रोसिंग ओवर द्वारा जब सामान्य W+ युग्मविकल्पी को mottled allele की स्थिति में पहुँचा दिया जाता है तो नया W+ युग्मविकल्पी एक mottled eye बनता है न कि dull red eye, जैसी कि अपेक्षा की जाती है।


ऐसा प्रतीत होता है कि जब यूक्रोमेटिक खण्ड को गुणसूत्र के विषमवर्णी (heterochromatic) क्षेत्र के समीप लाया जाता है तो यह विषम वर्णीभवन (heterochromatization) करता है जिसके कारण इस खण्ड की टेम्पलेट क्रिया (template activity) में कमी आ जाती है। इसके अतिरिक्त जब विषमवर्णी खण्ड को यूक्रोमेटिक खण्ड प्रविष्ट कराया जता है तो वह यूक्रोमेटाइजेशन (euchromatization) में चला जाता है। इसी । प्रकार का स्थिति प्रभाव विषम वर्णीभवन उत्पन्न करने वाले परिवर्तनशील (transposable) विषमवर्णी खण्ड में पाया जाता है।


गुणसूत्र खण्ड (chromosome segment) विषमवर्णी भवन (heterochromatization) जनक के लिंग (sex) के द्वारा प्रभावित हो सकता है जिनसे यह गुणसूत्र प्राप्त होता है। मादा ड्रोसोफिला (Female Drosophila) के पैत्रिक (paternal) X क्रोमोसोम के 71% केन्द्रक विषमवर्णी भवन युक्त बनते हैं जबकि मातृक (maternal) X गुणसूत्र केवल 20% केन्द्रकों में विषमवर्णी भवन युक्त होते हैं।


कोशिका में अन्य गुणसूत्र विषम वर्णीभवन द्वारा भी प्रभावित होते हैं जैसे ड्रोसोफिला (Drosophila) अतिरिक्त Y गुणसूत्र की उपस्थिति के कारण विषमवर्णी भवन (heterochromatinization) की आवृत्ति (frequency) कम हो जाती है जिसके फलस्वरूप विशेषक (trait) में शवलता (variegation) होता है।


(ii) सिस-ट्रान्स स्थिति प्रभाव (Cis-trans Position Effect) - यह प्रभाव अधिकतर देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए, ड्रोसोफिला (Drosophila) X सहलग्न स्थानिक (loci) apr (apricot) तथा w (white) का प्रभाव इस कीट की आँखों के रंग पर पड़ता है, बहुत समीप सहलग्न होते हैं जो हिटरोजाइगस मादा में dull red eyes उत्पन्न करता है तथा इनका आनुवंशिक निर्माण apr* w*/apr w होता है अर्थात् दो जीन्स वन्य (wild) प्रकार के युग्म विकल्पी होमोलोगस गुणसूत्रों में उपस्थित होते हैं (cis position) । जब हिटरोजाइगस मादा apr+ w/apr w+ होते हैं अर्थात् दो जीन्स के वन्य प्रकार के युग्मविकल्पी होमोलोगस गुणसूत्रों पर उपस्थित होने पर (trans position) आँखों का रंग pale apricot होता है। अतः apr का फीनोटाइप प्रभाव तथा w genes जो हिटरोजाइगस अवस्था में होते हैं, अपनी cis एवं trans स्थिति पर निर्भर करते हैं।


(iii) पुनरावृत्ति स्थिति प्रभाव (Duplication Position Effect) - इस प्रभाव के द्वारा असमान (unequal) क्रोसिंग ओवर को समझाया जा सकता है, यह ड्रोसोफिला के Bar (B) आँख जीन में देखा जा सकता है। स्थिति प्रभाव की आण्विक क्रियाविधि इसके द्वारा स्पष्ट नहीं होती है।

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